हालत-ए-महबूब : एक ग़ज़ल
ऐ काश कि मैं कभी उनसे यूं जुदा ना होता ।
अधूरी साँसें, भींगी आँखें व दिल भरा ना होता ।
बदन के लिबास जैसे पत्तियां हो, चेहरा गुलाब हो ।
खूबसूरती होती है पर ऐसा रह्मानी बाग ना होता ।
बदन है रूह-ए-पाक महल, कोई इंसानी जिस्म नहीं ।
ख़ुदा-ए-नूर हैं आँखों की, आपका कोई जमीं ना होता !
फरिश्ता-ए-फ़लसफ़ा तेरे तरस पे ख़ून बरसता है मेरा । मरता सुकूँ से गर तुम्हें फूट फूट कर रोते देखा ना होता ।
कोई जन्नत-ए-हूर को कैसे यूं सता सकता है, मालिक !
करारता तुझे ही मुजरिम, गर तेरा ही कानून ना होता ।
मेरे महबूब, हैं बहुत ही नाज़ुक मेरे भी हालात वर्ना,
तेरे कदमों तले जन्नत रखता तो यूं बंजर जमीं ना होता ।
कलमगारी@ रजनीश कुमार मिश्र
(हक़्क़-ए-नक़्ल महफ़ूज़)
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