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प्रेम के छिलके में वासना का बीज ( दिवंगत बेटी अंकिता सिंह को श्रद्धांजली स्वरुप समर्पित मेरी यह कविता)

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मन था तेरा भूखा राक्षस, तू स्वाँग भरा प्रेमनाथ का ? नज़रों में थी नीच नज़ाकत, ढोंग करना था, प्राणनाथ का ? वासना से व्याप्त हृदय था, प्रस्ताव वहीं दिल देने को ? लार- लिप्त मुख बेचैन हुआ था, क्या नोच नोच कर खाने को ? जीभ तेरे थे ख़ून के प्यासे, तू क्या प्रेम शहद टपकाएगा ? दानव दंत चिरन को आतुर, रूह क्या जानें, काया चीर चीर कर खाएगा ! सूंघ रहा था मांस की खुश्बू, सांसो के तार से क्या जुड़ पाएगा ? रग रग में था विष भरा क्या अमर प्रेम बरसाएगा ? रज कण भर होता प्रेम कहीं पनपती घिनौनी सोच नहीं   देकर जान की कुर्बानी ही सही जान को जान से करता, जुदा नहीं  हाय नियत तेरी वो बेटी मेरी भाप गई, क्या इसीलिए, उस जिगर की जान गई ? हत्यारे, क्या तू ज़िंदा बच पाएगा ? अरे तू कतरा कतरा मौत के मुंह में जाएगा ! फोड़ दो गंदी आखों को काट दो उठते हाथों को फूंक दो जिंदा गिद्धों को बंद करो अब बातों को यकीं नहीं अब  और अमन की बातों पर, बंद करो समझौता अब बेटियों की लाशों पर ! @ रजनीश कुमार मिश्र 

गईया के चरवाह

हो हो होsss..x 2 हम त गइया के चरवाह हई राखी ले साथें लाठी खोजीले हरदम साथी होss नाही हमरा लागे डर नाही दुनिया के फिकर हम अइसन बानी जोकर हम त हस हस के करी सबसे बाती राखी ले साथें लाठी हो... हो हमरी गौआं में जे आई ऊ त बड़ा मज़ा पाई दही भुजा जे ऊ खाई नहीं मानी पाखंड वाला धरम नाही फोड़े वाला जाति होss हम त गईयां के.... हमरा दिल के हई मेहमान एगो बाड़ी हमर जान उनका पर बानी कुर्बान कहीं दिलवा के हाल हम काथी  राखी ले साथे लाठी हो... हम त गईयआ के... इनकर फ़ोटो लेके घूमी फोटउवे के हम चूमी कबो घरवा इनके जुमी दिलवा जरे जस लोहरा के भाथी राखी ले... ई फूल के बाबू हौएं माली होखे ना दिहे घरवाली  जेब भईल जाता खाली हमके बकरा बनवली ई अपने भईली हाथी ना चाही अइसन साथी होss हम त गईया....  रजनीश कुमार मिश्र 

वर्तमान बिहारी सियासत और कैरम बोर्ड का खेल( पार्टी की चस्मे से अलग एक दृश्य)नेता जी लोग जनता को कैरमबोर्ड की गोटी और अपने आप को स्ट्राइकर समझकर प्रजातंत्र की खेल खेलते हैं। और हैरानी की बात तो यह है कि गोटी यानी की जनता के पास गड्ढे में गिरने के सिवाय कोई विकल्प नहीं होता! कभी इस गड्ढे में तो कभी उस गड्ढे में गिरना अवश्यंभावी है या यू कह लीजिए की गोटी का लक्ष्य, या भाग्य ही गिरना होता है। चाहें जनता पढ़ी लिखी हो चाहें अनपढ़ हो, गरीब हो या अमीर हो,किसी भी जाति- धर्म की हो मतलब चाहें काली गोटी हो, --कम मूल्य वाली, चाहें सफेद (गोरी) वाली गोटी हो--थोड़ी अधिक मूल्य वाली चाहें पिंक कलर वाली क्वीन ही क्यूं ना हो उसे बस गड्ढे में गिर कर गिराने वाले का मूल्य बढ़ाना है ! इन गोटियों का अपना कोई मूल्य नहीं। ये गोटिया न जीतती हैं नाही हारती हैं, बस गिरती हैं! कभी कभी इन गोटियों को भ्रम भी हो जाता है कि वो अपने चाहने वाले के गड्ढे में गिर रहीं हैं पर यह उनका भ्रम ही साबित होता है। ये गोटिया गिरते गिरते घिस जाति हैं और तब नई गोटियों की गिरने की बारी आती है। पर हैरानी की बात है कि वह गिराने वाले लोग भी कहा शाश्वत हैं फिर भी उन्हें यह अहसास नहीं होता। आखिरकार वो भी भगवान के बनाए हुए कैरमबोर्ड के होल में समाहित हो जाते हैं। लेकिन ताज़्जुब की बात है कि ये गिराने वाले (सच्चे नेताओं को छोड़ कर) स्वयं गिरने के बाद भी अमर ही रहते हैं और उन्हें कैरम बोर्ड के लीजेंड के रूप में याद किया जाता है। गोटियों को अर्थात् जनता को अपना वजूद तलाशने की आवश्यकता है!

वर्तमान बिहारी सियासत और कैरम बोर्ड का खेल ( पार्टी की चस्मे से अलग एक दृश्य) नेता जी लोग जनता को कैरमबोर्ड की गोटी और अपने आप को स्ट्राइकर समझकर प्रजातंत्र की खेल खेलते हैं। और हैरानी की बात तो यह है कि गोटी यानी की जनता के पास गड्ढे में गिरने के सिवाय कोई विकल्प नहीं होता! कभी इस गड्ढे में तो कभी उस गड्ढे में गिरना अवश्यंभावी है या यू कह लीजिए की गोटी का लक्ष्य, या भाग्य ही गिरना होता है। चाहें जनता पढ़ी लिखी हो चाहें अनपढ़ हो, गरीब हो या अमीर हो,किसी भी जाति- धर्म की हो मतलब चाहें काली गोटी हो, --कम मूल्य वाली, चाहें सफेद (गोरी) वाली गोटी हो--थोड़ी अधिक मूल्य वाली चाहें पिंक कलर वाली क्वीन ही क्यूं ना हो उसे बस गड्ढे में गिर कर गिराने वाले का मूल्य बढ़ाना है ! इन गोटियों का अपना कोई मूल्य नहीं। ये गोटिया न जीतती हैं नाही हारती हैं, बस गिरती हैं! कभी कभी इन गोटियों को भ्रम भी हो जाता है कि वो अपने चाहने वाले के गड्ढे में गिर रहीं हैं पर यह उनका भ्रम ही साबित होता है। ये गोटिया गिरते गिरते घिस जाति हैं और तब नई गोटियों की गिरने की बारी आती है। पर हैरानी की बात है कि वह गिराने वाले लोग