प्रेम के छिलके में वासना का बीज ( दिवंगत बेटी अंकिता सिंह को श्रद्धांजली स्वरुप समर्पित मेरी यह कविता)
मन था तेरा भूखा राक्षस,
तू स्वाँग भरा प्रेमनाथ का ?
नज़रों में थी नीच नज़ाकत,
ढोंग करना था, प्राणनाथ का ?
वासना से व्याप्त हृदय था,
प्रस्ताव वहीं दिल देने को ?
लार-लिप्त मुख बेचैन हुआ था,
क्या नोच नोच कर खाने को ?
जीभ तेरे थे ख़ून के प्यासे,
तू क्या प्रेम शहद टपकाएगा?
दानव दंत चिरन को आतुर,
रूह क्या जानें, काया चीर चीर कर खाएगा !
सूंघ रहा था मांस की खुश्बू,
सांसो के तार से क्या जुड़ पाएगा ?
नश नश में था विष भरा
क्या अमर प्रेम बरसाएगा ?
मनबसिया का मोह-महक,
रग रग में राग बनाता है।
नभमंडल में प्रीतम दरष,
प्रेम-रस स्याही से महाकाव्य रच जाता है।
रज कण भर होता प्रेम कहीं
पनपती घिनौनी सोच नहीं
देकर जान की कुर्बानी ही सही
जान को जान से करता, जुदा नहीं
हाय ! नियत तेरी वो बेटी मेरी भाप गई,
तेरी धमनियों में वाहित मल को नाप गई।
प्रेम का सम्मान कर उसने तुम्हें इनकार किया,
फिर शांत हृदय से शयन को नयन-निद्रा श्रृंगार किया
सुकुमारी सुसुप्त स्वयं निंदिया-रानी सी लगती होगी
इस दृश्य पर भला तुझमें प्रतिशोध ज्वाला कैसे धधकी होगी ?
हाथ तेरे क्यों ना कापें पावन पुलकित प्रेम पुष्प जलाने में?
आह तेरी क्यों ना निकली उस कोमल काया पर तेज़ाब बरसाने में?
निंद्रा देवि जली पहले,
फिर प्रेम-पथ वो नयन जला,
प्रेम-रस वो मेघ अधर फिर जला छन-छन करके
तब प्रेम-स्रोत वो हृदय जला, फिर प्रेम जला धूं-धूं करके ।
हाय ये कैसी विवशता मैं हाथ में कलम उठाया हूं?
मैं कायर हूं, कमज़ोर हूं जो अभी तक चुप लगाया हूं।
मैं पत्थर हूं या इंसा हूं मैं क्यूं ना कुछ कर पाया हूं?
जली भुनी उस परी को बस कविता में दफनाया हूं।
हाय रे हवस के दरिंदें, तू कैसे ज़िंदा रह जाएगा?
अरे तू कतरा कतरा मौत के मुंह में जाएगा!
तेरी मस्तिष्क फट जायेगी, हृदय चूर चूर हो जायेगा।
तू सोच के देख बस एकबार, मौत भी तुझे ठुकरायेगा।
फोड़ दो गंदी आखों को
काट दो उठते हाथों को
फूंक दो जिंदा दरिंदों को
बंद करो अब बातों को
यकीं नहीं अब और अमन की बातों पर,
बंद करो समझौता अब बेटियों की लाशों पर !
@ रजनीश कुमार मिश्र
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