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घर

कुछ शहर में घर वाले किराए के घर वालों को खाना बदोश समझते हैं। लेकिन मुझे लगता है कि वे बिल्कुल ही गलत समझते हैं। या यूं समझ लीजिए कि वो कुछ समझते ही नहीं हैं  क्योंकि दरअसल वे एक तंग कैद खाने को घर जो समझ बैठते हैं। तुम्हारे घरों में हम क्या, रौशनी और हवा भी ख़ुद को पराए समझते हैं। फूल, चिड़ियों और पेड़-पौधों को तुम्हारे विकृत बच्चे क्या समझते हैं? हम भाव-भीनी भोज्य को और तुम जानलेवा रसायनों को भोजन समझते हो। तुम आयोडीन नमक खाने वाले नमक हलाली क्या समझते हो? हम मां के दूध पीने वाले और तुम डब्बे के दूध वाले, बताओ कौन दूध के कर्ज़ समझते हैं? आना कभी हमारे गांव में, हम तुम्हारे घर को अपना संडास से भी बदतर समझते हैं। तुम्हारे विचार कुछ ऐसे दूषित है कि चैतन्य आत्मा को भी कुछ नहीं समझते हैं?   हम स्वच्छंद विचरण वाले, आत्मा को परमात्मा से मिलाने वाले   नश्वर घर को क्षणिक समझते हैं। तुम्हारे यहां काया में रूह और मस्तिष्क में मन कुछ इस तरह से कैद है कि लोग उस्ताद- उच्चकों को ही माध्यम समझते हैं।  ✍️ रजनीश कुमार मिश्र (कॉपी राईट कंटेंट)