वर्तमान बिहारी सियासत और कैरम बोर्ड का खेल( पार्टी की चस्मे से अलग एक दृश्य)नेता जी लोग जनता को कैरमबोर्ड की गोटी और अपने आप को स्ट्राइकर समझकर प्रजातंत्र की खेल खेलते हैं। और हैरानी की बात तो यह है कि गोटी यानी की जनता के पास गड्ढे में गिरने के सिवाय कोई विकल्प नहीं होता! कभी इस गड्ढे में तो कभी उस गड्ढे में गिरना अवश्यंभावी है या यू कह लीजिए की गोटी का लक्ष्य, या भाग्य ही गिरना होता है। चाहें जनता पढ़ी लिखी हो चाहें अनपढ़ हो, गरीब हो या अमीर हो,किसी भी जाति- धर्म की हो मतलब चाहें काली गोटी हो, --कम मूल्य वाली, चाहें सफेद (गोरी) वाली गोटी हो--थोड़ी अधिक मूल्य वाली चाहें पिंक कलर वाली क्वीन ही क्यूं ना हो उसे बस गड्ढे में गिर कर गिराने वाले का मूल्य बढ़ाना है ! इन गोटियों का अपना कोई मूल्य नहीं। ये गोटिया न जीतती हैं नाही हारती हैं, बस गिरती हैं! कभी कभी इन गोटियों को भ्रम भी हो जाता है कि वो अपने चाहने वाले के गड्ढे में गिर रहीं हैं पर यह उनका भ्रम ही साबित होता है। ये गोटिया गिरते गिरते घिस जाति हैं और तब नई गोटियों की गिरने की बारी आती है। पर हैरानी की बात है कि वह गिराने वाले लोग भी कहा शाश्वत हैं फिर भी उन्हें यह अहसास नहीं होता। आखिरकार वो भी भगवान के बनाए हुए कैरमबोर्ड के होल में समाहित हो जाते हैं। लेकिन ताज़्जुब की बात है कि ये गिराने वाले (सच्चे नेताओं को छोड़ कर) स्वयं गिरने के बाद भी अमर ही रहते हैं और उन्हें कैरम बोर्ड के लीजेंड के रूप में याद किया जाता है। गोटियों को अर्थात् जनता को अपना वजूद तलाशने की आवश्यकता है!

वर्तमान बिहारी सियासत और कैरम बोर्ड का खेल
( पार्टी की चस्मे से अलग एक दृश्य)

नेता जी लोग जनता को कैरमबोर्ड की गोटी और अपने आप को स्ट्राइकर समझकर प्रजातंत्र की खेल खेलते हैं। और हैरानी की बात तो यह है कि गोटी यानी की जनता के पास गड्ढे में गिरने के सिवाय कोई विकल्प नहीं होता! कभी इस गड्ढे में तो कभी उस गड्ढे में गिरना अवश्यंभावी है या यू कह लीजिए की गोटी का लक्ष्य, या भाग्य ही गिरना होता है। चाहें जनता पढ़ी लिखी हो चाहें अनपढ़ हो, गरीब हो या अमीर हो,किसी भी जाति- धर्म की हो मतलब चाहें काली गोटी हो, --कम मूल्य वाली, चाहें सफेद (गोरी) वाली गोटी हो--थोड़ी अधिक मूल्य वाली चाहें पिंक कलर वाली क्वीन ही क्यूं ना हो उसे बस गड्ढे में गिर कर गिराने वाले का मूल्य बढ़ाना है ! इन गोटियों का अपना कोई मूल्य नहीं। ये गोटिया न जीतती हैं नाही हारती हैं, बस गिरती हैं! कभी कभी इन गोटियों को भ्रम भी हो जाता है कि वो अपने चाहने वाले के गड्ढे में गिर रहीं हैं पर यह उनका भ्रम ही साबित होता है। ये गोटिया गिरते गिरते घिस जाति हैं और तब नई गोटियों की गिरने की बारी आती है। पर हैरानी की बात है कि वह गिराने वाले लोग भी कहा शाश्वत हैं फिर भी उन्हें यह अहसास नहीं होता। आखिरकार वो भी भगवान के बनाए हुए कैरमबोर्ड के होल में समाहित हो जाते हैं। लेकिन ताज़्जुब की बात है कि ये गिराने वाले (सच्चे नेताओं को छोड़ कर) स्वयं गिरने के बाद भी अमर ही रहते हैं और उन्हें कैरम बोर्ड के लीजेंड के रूप में याद किया जाता है। गोटियों को अर्थात् जनता को अपना वजूद तलाशने की आवश्यकता है!
@ रजनीश कुमार मिश्र 

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