रुख़्सत-ए-ज़ख्म
एक दिन शहर से आया अपने गांव के बाज़ार तक ।
नज़रें समेट रहीं थी नज़ारा, छितिज से मजार तक ।।
जान पहचान के ही सब थे- बुंदा, बंदा से बयार तक ।
धुंधला था मासूमियत, नादानी, जवानी से प्यार तक ।।
गांव वो घर खींच रहा था उस तरफ़, नदी के पार तक । और नहर, बगीचा, खेत-क्रिकेट भी जीत से हार तक ।
फ़िर धक्का दिया यकायक वो पीपल, कुआं वो यार तक ।
मां नहीं थीं वहां और बेजां था अपना घर, आंगन से द्वार तक ।
हिम्मत न हुई आगे बढ़ने की सो लौट आया वापसी सवार तक ।
यहीं कैद था भाग्य, संगिनी, बीमार मां वो जीवन के आसार तक ।
दास्तां-ए-वालिद जो मुबहम है, कौन लिखेगा कयामत के प्रसार तक ।
वो बस जिता है पल पल मर कर, तपता है सर्द से बसंती बहार तक ।
कलमगारी ✍️© रजनीश कुमार मिश्र
(हक़्क़-ए-नक़्ल महफ़ूज़)
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