महबूब के घर जाना चाहता हूं : एक ग़ज़ल

उनसे मिलके हाल-ए-दिल बताना चाहता हूं ।
आख़िरी बार ही सही प्यार जताना चाहता हूं ।

दौर-ए-मोहब्बत जो कभी जिया था एक साथ ।
वहीं दौर मैं उनसे चुराकर लाना चाहता हूं ।

वहम है दुनियां को कि वो मुझसे जुदा हैं ।
मैं भी जमाने को अपनी सांसें कहां दिखाना चाहता हूं ।

ऐ ख़ुदा उन्हें तमाम उम्र सेहते-आबाद रखना ।
जिन्हें एक बार फिर से मैं गले लगाना चाहता हूं ।

मेरे सफ़र-ए-जिन्दगी का अंजाम तो पता नहीं
लेकिन मरते दम तक चराग-ए-इश्क जलाना चहता हूं ।

तुम उन्हें जो एक अदना सा ख़ातून मानते हो 
मैं उन्हीं में अपनी सारी दुनियां बसाना चाहता हूं ।

बेशक तेरे औलादों की वो वालिदा है मगर
तू शौहर-ए-जिस्म है, सच्चाई ये सुनाना चाहता हूं ।

निशानियां मिटती नहीं उनकी मोहब्बत का रूह से
तू जब कहे तभी मैं अपना जिस्म जलाना चाहता हूं ।

कलमगारी ✍️© रजनीश कुमार मिश्र
 (हक़्क़-ए-नक़्ल महफ़ूज़)

Comments

Popular posts from this blog

काल चक्र-सर्व शक्तिमान !!!

मैं सिपाही हूं, आशिक-आवारा हुआ हूं!

Why Am I So Restless Tonight ?