मालिक ने ख़ुदी बसायी है बस्तियां : एक ग़ज़ल
बहुत बातें बनाली हमने, ज़िंदगी-ए-कारोबार में ।
गुफ़्तुगू-ए-ख़्वाहिश है तुमसे, साईकिल की सवार में।
मरहम वो ज़न्नत-ए-दीद है, तेरी सरबती आँखों की खुमार में।
उफ़ ! हर चीज़ बिक रही है यहां, हाय! आग लगी है बाज़ार में ।
सवाद खूब है देहाती चटनी में, अम्मी-दादी वो नानी की आचार में ।
चलो एक झोपड़ा बनाते हैं, सब बेचकर बाग वो बहार में।
पैराकी काफ़ी करली हमने अबतक, आब-ए-ठहराव में ।
बस चलो अब वहीं चलें-गांव, झील-ए-बहाव के नाव में ।
शबनम-ए-ख़ास का बुलावा है बे-जुराब, चांदनी 'अब्र की ठाँव में।
शहरों में सिंगार-ए-चमक बहुत है, ख़ुदी की गर्द है गंदी बयार में ।
देहातों में क़रार-वो-प्यार बहुत है, रिश्ता वो रास्ती है हरेक इकरार में ।
मालिक ने ख़ुदी बसायी है बस्तियां, अपने पलकों की छांव में ।
बहुत बातें बना ली हमने, ज़िंदगी-ए-कारोबार में ।
गुफ़्तुगू-ए-ख़्वाहिश है तुमसे, साईकिल की सवार में।
ज्यादा जी लिया जहन्नम ए जिंदगी, आओ चलें जन्नत के गांव में।
हक़्क़-ए-नक़्ल महफ़ूज़...
✍️© रजनीश कुमार मिश्र
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