मालिक-ए-मख़्लूक़ :एक ग़ज़ल
मेरी बुत परस्ती से, हमारे रिश्ते शरेआम हो गए
बगैर रूह के वो मुहतरम-ओ-ख़ास, हम आम हो गए
हम अदब-ओ-आलिम वाले, खैर अब बदनाम हो गए
दरिंदें-नवाज़ अब आपकी नज़रों में गुलफ़ाम हो गए
इक दौर के मुरिद-ए-फ़कीर, अब परिंदे उड़नबाज हो गए
संभलिए, अम्मीजान के नूर-ए-नज़र, अब आप गूले-नाज़ हो गए
ख़ुदा की ख़ुदाई तो हम भी हैं पर आज क्या से क्या हो गए !
थे कभी हम भी चश्म-ए-बसर वाले , रब जाने कहां खो गए !
आख़री सांस भी रुख्सत होने को है, वो लौटे नहीं, जो गए
अब छोड़ो भी यार, हम तो ख़ुदा के ही थे, उन्हीं का हो गए !
✍️© रजनीश कुमार मिश्र
अति सुंदर सर
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