ज्ञान यात्रा
उद्गम द्वार से चली थी जब, थी भयकातर भीतर भीतर अबोध भी सुबोध लगा, सच में बिखरी थी तितर-बितर । मेरे जीवन की धारा में, गुरु ज्ञान धार का मिल जाना मेरे मंदिर के द्वारों पे, हो नानी के दीप का जल जाना । रिक्त श्यामपट्ट जैसा थी, पर श्याम रखी अंदर अंदर । गुरु कृपा मुझपर हुई, तब प्रभु सर्वत्र दिखे सुंदर सुंदर । सखियों का सानिध्य मिला, तो जीवन बगिया चहक उठी जलती थी जो आग यूं ही, अब हवनकुण्ड-सा महक उठी मैं चलकर ही तो आई थी, अब वक्त हुआ चलने दो । गति में ही जीवन है, ना रुको, ना रोको, जियो, जीने दो । हमने बहुत बाते करली, अब इन बातों को बुनने दो । हमने मोती बिखेरे थे, अब एक एक करके चुनने दो । हर सांस आस की बेटी है, विदा करो दिल में भरकर । वो भी जीना क्या जीना है, गर जीना हो मर मर कर ? समय परिचय ना मांगे, करो श्रम दिलो जां सौंपकर । पहचान हो ऐसा कि, वक्त जो पूछे, वक्त बताए, सब लौटकर । @Anisha