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हालत-ए-महबूब : एक ग़ज़ल

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ऐ काश कि मैं कभी उनसे यूं जुदा ना होता । अधूरी साँसें, भींगी आँखें व दिल भरा ना होता । बदन के लिबास जैसे पत्तियां हो, चेहरा गुलाब हो । खूबसूरती होती है पर ऐसा रह्मानी बाग ना होता । बदन है रूह-ए-पाक महल, कोई इंसानी जिस्म नहीं । ख़ुदा-ए-नूर हैं आँखों की, आपका कोई जमीं ना होता ! फरिश्ता-ए-फ़लसफ़ा तेरे तरस पे ख़ून बरसता है मेरा । मरता सुकूँ से गर तुम्हें फूट फूट कर रोते देखा ना होता । कोई जन्नत-ए-हूर को कैसे यूं सता सकता है, मालिक ! करारता तुझे ही मुजरिम, गर तेरा ही कानून ना होता । मेरे महबूब, हैं बहुत ही नाज़ुक मेरे भी हालात वर्ना, तेरे कदमों तले जन्नत रखता तो यूं बंजर जमीं ना होता । कलमगारी@ रजनीश कुमार मिश्र  (हक़्क़-ए-नक़्ल महफ़ूज़)

महबूब के घर जाना चाहता हूं : एक ग़ज़ल

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उनसे मिलके हाल-ए-दिल बताना चाहता हूं । आख़िरी बार ही सही प्यार जताना चाहता हूं । दौर-ए-मोहब्बत जो कभी जिया था एक साथ  वहीं दौर मैं उनसे चुराकर लाना चाहता हूं । वहम है दुनियां को कि वो मुझसे जुदा हैं । मैं भी जमाने को अपनी सांसें कहां दिखाना चाहता हूं । ऐ ख़ुदा उन्हें तमाम उम्र सेहते-आबाद रखना  जिन्हें एक बार फिर से मैं गले लगाना चाहता हूं । मेरे सफ़र-ए-जिन्दगी का अंजाम तो पता नहीं लेकिन मरते दम तक चराग-ए-इश्क जलाना चहता हूं । तुम उन्हें जो एक अदना सा ख़ातून मानते हो  मैं उन्हीं में अपनी सारी दुनियां बसाना चाहता हूं । बेशक तेरे औलादों की वो वालिदा है मगर तू शौहर-ए-जिस्म है, सच्चाई ये सुनाना चाहता हूं । निशानियां मिटती नहीं उनकी मोहब्बत का रूह से तू जब कहे तभी मैं अपना जिस्म जलाना चाहता हूं । कलमगारी ✍️© रजनीश कुमार मिश्र  (हक़्क़-ए-नक़्ल महफ़ूज़)

ज़ख्म ए आतंक

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जब जब हमने आतंकियों पर ऐतबार किया, तब तब हमने मुंह की खाई है । हमदर्दों के सफ़ेद लिबास में वो, हराम-ए-हकीम वो ज़हर का दवाई है । जिसका जन्नते अस्ल ही कत्ल वो गारत है, वो ऐसा ही भाई है । लानत है उसकी पैदाइश पर, वो अपनी मां वो बहन का कसाई है । रगों में बारूद भरा है, जैसे मांओं ने दूध नहीं अब्बाओं ने खून पिलाई है । फटना ही इनकी नियति है, इनके आकाओं ने ऐसे ही मसनद सिलाई है । मासूमों के मांस सूंघते रहते हैं ये लोग, जैसे इंसानी गोस्त खाई है । सुपुर्द-ए-खांक भी नहीं होते इनके चीथड़े, अक्सर हवा ने उड़ाई है । मोहब्बत वो इल्म को भी बनाया गुनहगार, किस दर्स-गाह ने तुम्हें ये सिखाई है । गर तू भी है इंसान कि औलाद, निकाल फेंक वहशत, तेरे खून में किसी ने मिलाई है ।  (हक़्क़-ए-नक़्ल महफ़ूज़) ✍️ रजनीश कुमार मिश्र

रुख़्सत-ए-ज़ख्म

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एक दिन शहर से आया अपने गांव के बाज़ार तक । नज़रें समेट रहीं थी नज़ारा, छितिज से मजार तक ।। जान पहचान के ही सब थे- बुंदा, बंदा से बयार तक । धुंधला था मासूमियत, नादानी, जवानी से प्यार तक ।। गांव वो घर खींच रहा था उस तरफ़, नदी के पार तक । और नहर, बगीचा, गिल्ली-डंडा भी जीत से हार तक ।  फ़िर धक्का दिया यकायक वो पीपल, कुआं वो यार तक । मां नहीं थीं वहां और बेजां था अपना घर, आंगन से द्वार तक । हिम्मत न हुई आगे बढ़ने की सो लौट आया वापसी सवार तक । यहीं कैद था भाग्य, संगिनी, बीमार मां वो जीवन के आसार तक । दास्तां-ए-वालिद जो मुबहम है, कौन लिखेगा कयामत के प्रसार तक । वो बस जिता है पल पल मर कर, तपता है सर्द से बसंती बहार तक । कलमगारी ✍️© रजनीश कुमार मिश्र  (हक़्क़-ए-नक़्ल महफ़ूज़)

उस्तादों के उस्ताद के लिए...!

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मेरा ख्याल है कि मुझे अब तेरे ख्याल का खाल पहनना  होगा । अपने मिजाज़ का जनाजा उठा तेरे मिजाज़ में पलना होगा । तू हुज़ूर के हवा सरीख भी नहीं, पर हाय ये कैसी मज़बूरी, मुझे तेरे नक्श-ए-क़दम पे चलना होगा । मेरा सर ख़ुद झुकता है उस्तादों के आगे, ज्यों सजदे में सबका झुकता होगा । सोचो क्या है तेरी खासियत की ये मेरी नज़र तेरे दिद से छुपता वो बचता होगा । पता है सबको कि तू दलाल है, अब तु भी मान ले तुमसे उस्तादी नहीं, बस दलाली ही बेहतर होगा । तू कहां जाता होगा, कब आता होगा, शान-वो-शौकत की हवा कहां भरवाता होगा ? तू हक मारता होगा, पेट काटता होगा औरों का, तू दौलत लूटता वो लुटवाता होगा । मैंने सुना है तुम्ही से कि ज़िन्दगी है चार दिन की  मेरा दावा है कि ऐसा कह के तेरा रूह कांप जाता होगा । ✍️कलमगारी @©रजनीश कुमार मिश्र  (हक़्क़-ए-नक़्ल महफ़ूज़)

मां बाप की करो कद्र !

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मैंने उनकी मोहब्बत को सीने में जलते देखा है । वर्षों ना बरसी थी जो आँखें उन्हें बरसते देखा है । ख़ुदा गवाह हैं, मैने ख़ुद के ख़ुदा को, हरपल मरते देखा है। अंधी होजानी थीं, उन आँखों को, जिनसे हमने ऐसा होते देखा है ! दुनियावी इंसानियत, तुझे हैवानियत के हलाहल में गिरते देखा है । जो फ़ौलाद गलाने वाले को, औलाद के सामने पिघलते देखा है । डीजे की धूम पर, मैंने नई बहुरिया को नागिन नाच करते देखा है । हाय, फटी क्यूं न मेरी छाती जो बूढ़ी माँ को वहीं बिलखते देखा है ! तू नादां है जो तूने सिर्फ़ हसीं, खुशी का बहार ए गुब्बार देखा है । पूछ उससे तजुर्बा-ए-ज़िन्दगी, जिसने जलकुम्भी के जलते अम्बार देखा है । वो फरेबी है, जिसने तेरे हाथों की लकीरों में तेरी क़िस्मत रोते देखी है । उस मां की आंखों में देख जिसने तुझे अपने तन से पैदा होते देखी है । कलमगारी ✍️@©®रजनीश कुमार मिश्र (हक़्क़-ए-नक़्ल महफ़ूज़)

चांद से चंदा की नैना मिली ...!

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जो चांद से चंदा की नैना मिली तो चांदी बदन चम्पा सी खिलीss । मुझे भी कहीं, है देखी कभी ? मेरी शाम-वो-सहर, है तू आठोंपहर । तू श्याम, बस नाम, बसा ले, दिलों में अभीss...। जो चांद से चंदा की नैना मिली तो चांदी बदन चम्पा सी खिलीss । क्या चंदा तुझे, है भी ख़बर ? तू भौरा कि है, जान-ए-जिगर । है ख़ाब, कि आब, पिला दे, लबों की कभी ss...। जो चांद से चंदा की नैना मिली तो चांदी बदन चम्पा सी खिलीss । मैं तुझको जो देखूं , तो अपना लगे तू । जो ख़ुदको मैं देखूं , तो सपना लगे तू । तू आ जा, समा जा , बदन में, हवा बनादे मिट्टी मेरीss...। जो चांद से चंदा की नैना मिली तो चांदी बदन चम्पा सी खिलीss । फ़कीर-ए-इश्क , बनेगा जो बादल  आशिक आवारा , तो होगें ना पागल । रात रानी, बनेगी कहानी, देखो , ख़ुदाया, खुशबू उड़ीss...। ~मेरे गीत... ✍️© रजनीश कुमार मिश्र (हक़्क़-ए-नक़्ल महफ़ूज़)