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ज्ञान यात्रा

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उद्गम द्वार से चली थी जब, थी भयकातर भीतर भीतर अबोध भी सुबोध लगा, सच में बिखरी थी तितर-बितर । मेरे जीवन की धारा में, गुरु ज्ञान धार का मिल जाना मेरे मंदिर के द्वारों पे, हो नानी के दीप का जल जाना । रिक्त श्यामपट्ट जैसा थी, पर श्याम रखी अंदर अंदर । गुरु कृपा मुझपर हुई, तब प्रभु सर्वत्र दिखे सुंदर सुंदर । सखियों का सानिध्य मिला, तो जीवन बगिया चहक उठी जलती थी जो आग यूं ही, अब हवनकुण्ड-सा महक उठी मैं चलकर ही तो आई थी, अब वक्त हुआ चलने दो । गति में ही जीवन है, ना रुको, ना रोको, जियो, जीने दो । हमने बहुत बाते करली, अब इन बातों को बुनने दो । हमने मोती बिखेरे थे, अब एक एक करके चुनने दो । हर सांस आस की बेटी है, विदा करो दिल में भरकर । वो भी जीना क्या जीना है, गर जीना हो मर मर कर ? समय परिचय ना मांगे, करो श्रम दिलो जां सौंपकर । पहचान हो ऐसा कि, वक्त जो पूछे, वक्त बताए, सब लौटकर । @Anisha

Life Lessons...!

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Self-undervalue is suicidal. Self-overvalue is genocidal. Aqua-stagnancy is ironical. Oceanic-ego is tsunamical. Self-respect has a balance. Self-dominance has violence. Rivers have two banks to flow. Floods kill wherever they go. Self-discipline is a roadmap. Unchecked-self is a rat-trap. Birds are free to fly in the sky. A moody craft takes to goodbye. Everything has an existential Calculation for our experiential Knowledge of joyous harmony. Survival roots in soil of money. Life is meant for the learning. Love is the reward of earning. Beneficial people are resource. A king sits on arms of force. First arrange fuel for the go, Wealth restores human ego. Take your life to be very easy. Universe is complex; remain busy.  @✍️ Rajneesh Kumar Mishra   ( Copyright Reserved)

ग़ज़ल ए आफताब

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मेरे उम्मीदों का दरिया अब उफान पर है । उस कश्ती की क्या क़िस्मत जो तूफ़ान पर है ? कीमत क्या लगाएगी ये दुनियां मेरे ईश्क की ? अंदाज़ा लगा लो, आख़री दांव मेरी जान पर है। लोग फूलों के शक्ल में कांटों का सौदा करते हैं । अब से यहीं तिज़ारत मुनाफे वो चालान पर है । अब मासूमों के खूँन से पानी महंगा हो गया है । लौट मछवारे, मछलियों का घर आसमान पर है । खूनी अंबर में अधकटे चाँद को चमकते देखा है । कभी बुझा नहीं वो, उसकी चमक भी शान पर है । कलमगारी ✍️ रजनीश कुमार मिश्र  (हक़्क़-ए-नक़्ल महफ़ूज़) Image Credit @Grok

हालत-ए-महबूब : एक ग़ज़ल

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ऐ काश कि मैं कभी उनसे यूं जुदा ना होता । अधूरी साँसें, भींगी आँखें व दिल भरा ना होता । बदन के लिबास जैसे पत्तियां हो, चेहरा गुलाब हो । खूबसूरती होती है पर ऐसा रह्मानी बाग ना होता । बदन है रूह-ए-पाक महल, कोई इंसानी जिस्म नहीं । ख़ुदा-ए-नूर हैं आँखों की, आपका कोई जमीं ना होता ! फरिश्ता-ए-फ़लसफ़ा, तेरे तरस पे ख़ून बरसता है मेरा । मरता सुकूँ से गर तुम्हें फूट फूट कर रोते देखा ना होता । कोई जन्नत-ए-हूर को कैसे यूं सता सकता है, मालिक ! तुझे ही मुजरिम करार देता, गर तेरा ही कानून ना होता । मेरे महबूब, हैं बहुत ही नाज़ुक मेरे भी हालात वर्ना, तेरे कदमों तले जन्नत रखता तो यूं बंजर जमीं ना होता । कलमगारी@ रजनीश कुमार मिश्र  (हक़्क़-ए-नक़्ल महफ़ूज़)

महबूब के घर जाना चाहता हूं : एक ग़ज़ल

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उनसे मिलके हाल-ए-दिल बताना चाहता हूं । आख़िरी बार ही सही प्यार जताना चाहता हूं । दौर-ए-मोहब्बत जो कभी जिया था एक साथ  वहीं दौर मैं उनसे चुराकर लाना चाहता हूं । वहम है दुनियां को कि वो मुझसे जुदा हैं । मैं भी जमाने को अपनी सांसें कहां दिखाना चाहता हूं । ऐ ख़ुदा उन्हें तमाम उम्र सेहते-आबाद रखना  जिन्हें एक बार फिर से मैं गले लगाना चाहता हूं । मेरे सफ़र-ए-जिन्दगी का अंजाम तो पता नहीं लेकिन मरते दम तक चराग-ए-इश्क जलाना चहता हूं । तुम उन्हें जो एक अदना सा ख़ातून मानते हो  मैं उन्हीं में अपनी सारी दुनियां बसाना चाहता हूं । बेशक तेरे औलादों की वो वालिदा है मगर तू शौहर-ए-जिस्म है, सच्चाई ये सुनाना चाहता हूं । निशानियां मिटती नहीं उनकी मोहब्बत का रूह से तू जब कहे तभी मैं अपना जिस्म जलाना चाहता हूं । कलमगारी ✍️© रजनीश कुमार मिश्र  (हक़्क़-ए-नक़्ल महफ़ूज़)

ज़ख्म ए आतंक

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जब जब हमने आतंकियों पर ऐतबार किया, तब तब हमने मुंह की खाई है । हमदर्दों के सफ़ेद लिबास में वो, हराम-ए-हकीम वो ज़हर का दवाई है । जिसका जन्नते अस्ल ही कत्ल वो गारत है, वो ऐसा ही भाई है । लानत है उसकी पैदाइश पर, वो अपनी मां वो बहन का कसाई है । रगों में बारूद भरा है, जैसे मांओं ने दूध नहीं अब्बाओं ने खून पिलाई है । फटना ही इनकी नियति है, इनके आकाओं ने ऐसे ही मसनद सिलाई है । मासूमों के मांस सूंघते रहते हैं ये लोग, जैसे इंसानी गोस्त खाई है । सुपुर्द-ए-खांक भी नहीं होते इनके चीथड़े, अक्सर हवा ने उड़ाई है । मोहब्बत वो इल्म को भी बनाया गुनहगार, किस दर्स-गाह ने तुम्हें ये सिखाई है । गर तू भी है इंसान कि औलाद, निकाल फेंक वहशत, तेरे खून में किसी ने मिलाई है ।  (हक़्क़-ए-नक़्ल महफ़ूज़) ✍️ रजनीश कुमार मिश्र

रुख़्सत-ए-ज़ख्म

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एक दिन शहर से आया अपने गांव के बाज़ार तक । नज़रें समेट रहीं थी नज़ारा, छितिज से मजार तक ।। जान पहचान के ही सब थे- बुंदा, बंदा से बयार तक । धुंधला था मासूमियत, नादानी, जवानी से प्यार तक ।। गांव वो घर खींच रहा था उस तरफ़, नदी के पार तक । और नहर, बगीचा, गिल्ली-डंडा भी जीत से हार तक ।  फ़िर धक्का दिया यकायक वो पीपल, कुआं वो यार तक । मां नहीं थीं वहां और बेजां था अपना घर, आंगन से द्वार तक । हिम्मत न हुई आगे बढ़ने की सो लौट आया वापसी सवार तक । यहीं कैद था भाग्य, संगिनी, बीमार मां वो जीवन के आसार तक । दास्तां-ए-वालिद जो मुबहम है, कौन लिखेगा कयामत के प्रसार तक । वो बस जिता है पल पल मर कर, तपता है सर्द से बसंती बहार तक । कलमगारी ✍️© रजनीश कुमार मिश्र  (हक़्क़-ए-नक़्ल महफ़ूज़)