एक नज़्म: आख़िर क्यों?


आख़िर क्यों इतना तड़पती है, दौलत वो दुनियावी नजात के लिए?
अगरचे तू भी सुपुर्द-ए-खाँक होगी अकेली मातमी ज़मात के लिए ।
मोहब्बत का मरहम लाफ़ानी करता है, गर बांट दो हर मज़हब हर जात के लिए ।
किसी का इन्तकाल हुआ है वहां, बातें हो रही हैं उसके हरेक बात के लिए ।

तेरी नाज़ वो नखरें, नैन वो नक्श ख़ुदा ने ख़ास बनाया मेरे लिए।
मेरे इश्क की आजमाइश तु कर लेकिन बस सुकून के लिए।
मैं फ़क़ीर हुं, रूपया वो रकम नहीं है, दिल है और बाहें है आग़ोश के लिए ।
मैं टूटा हुआ सितारा हुं, चमक उठूंगा, बस एक बार जोड़ दें, ख़ुदा के लिए ।

मेरी जां, तू वाक़िफ है उसूल-ए-दुनिया से, कब्ज़ के नुस्खे में केले का पेड़ कट जाता है।
कसाई को बकरे की हलाली में बोलो कब तरस आता है?
यूं तो हसीं है लाखों इस दुनिया में, पर हर कोई दिल को रास कहां आता है?
मोहब्बत-ए-फ़क़ीर को ख़बर है कि हर पैदाइश में मोहब्बत नसीब नहीं हो पाता है।

हुस्न-ए-नूर, तुझे मेरे दर्द-ए-दिल का एहसास क्या होगा?
मरीज़-ए-इश्क जिएं या मर जाएं पत्थर-ए-दिल को फ़र्क क्या होगा?
दरिया के बाहर तड़पते मछली की दीदार से, मछुआरे को क्या होगा?
फव्वारे से भरा गुब्बारे का इंसा, बोल तुझमें हवा के  इलावें और क्या होगा?

@ रजनीश कुमार मिश्र 

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