ज़ख्म ए आतंक
जब जब हमने आतंकियों पर ऐतबार किया, तब तब हमने मुंह की खाई है । हमदर्दों के सफ़ेद लिबास में वो, हराम-ए-हकीम वो ज़हर का दवाई है । जिसका जन्नते अस्ल ही कत्ल वो गारत है, वो ऐसा ही भाई है । लानत है उसकी पैदाइश पर, वो अपनी मां वो बहन का कसाई है । रगों में बारूद भरा है, जैसे मांओं ने दूध नहीं अब्बाओं ने खून पिलाई है । फटना ही इनकी नियति है, इनके आकाओं ने ऐसे ही मसनद सिलाई है । मासूमों के मांस सूंघते रहते हैं ये लोग, जैसे इंसानी गोस्त खाई है । सुपुर्द-ए-खांक भी नहीं होते इनके चीथड़े, अक्सर हवा ने उड़ाई है । मोहब्बत वो इल्म को भी बनाया गुनहगार, किस दर्स-गाह ने तुम्हें ये सिखाई है । गर तू भी है इंसान कि औलाद, निकाल फेंक वहशत, तेरे खून में किसी ने मिलाई है । (हक़्क़-ए-नक़्ल महफ़ूज़) ✍️ रजनीश कुमार मिश्र