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मैं सिपाही हूं, आशिक-आवारा हुआ हूं!

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मैं दौर-ए-दर्द का इक सहारा हुआ हूं । ताज़-ए-सर-जमीं का सितारा हुआ हूं ।। मैं दौर-ए-दर्द का इक सहारा हुआ हूं ।। मैं सिपाही हूं, आशिक-आवारा हुआ हूं। मुझे नासमझss -२ तू ना समझss । मैं फलक से वतन पे उतारा हुआ हूं ।। मैं दौर-ए-दर्द का इक सहारा हुआ हूं । मैं सिपाही हूं, आशिक-आवारा हुआ हूं।। मेरे खून-ए-ज़िगर-२ तू मरहम है । मैं मां के पैरों का महावर हुआ हूं ।। मैं दौर-ए-दर्द का इक सहारा हुआ हूं । मैं सिपाही हूं, आशिक-आवारा हुआ हूं।। दूद-ए-मादर का असर-२ मेरा फ़र्ज़ है । ईश्क-ए-रूहानी-बाग का, मैं कुंवारा हुआ हूं ।। मैं दार-ए-दर्द का इक सहारा हुआ हूं । मैं सिपाही हूं, आशिक-आवारा हुआ हूं।। मेरे बूढ़े बाबा-२ तू अनाज है । मैं तेरे पसीने से संवारा हुआ हूं ।। मैं दार-ए-दर्द का इक सहारा हुआ हूं । मैं सिपाही हूं, आशिक-आवारा हुआ हूं। हक़्क़-ए-नक़्ल महफ़ूज़...! ✍️© रजनीश कुमार मिश्र

Sleeping Tree

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Seeing a sleeping tree  Calm and cool in the dark With chirps of a lone cricket Is as mournful as the funeral of an art. A swarm of fireflies Enters twinkling into its cover To drag my vision to its big fruits, Resting birds, sticking insects, cobwebs And galls of mites, hornets and wasps all full of lives. Artist better knows who holds whom. May death be full of vivid forms of lives ! ✍️© Rajneesh Kumar Mishra (Copyright Reserved)

'He' and 'She' : The Root Forms of Lives

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Root of 'me' in the 'she' form, Argued with me, the root 'he' form ; Over 'his' logical behaviour, As 'he' form has his wit heavier. As a root 'she' form forms human-forms So she's tender without worldly norms. My this case too isn't unique ; 'She's' the tenderest, now old and weak. I feel 'her' in my humble heart's fabrics, And 'him' in the clever brain's tactics. My heart can't anymore hold her tears As it's overfilled in thirty-six long years. O, Holy Nature ! Your brain's the hard 'Quarters', To protect the nourishing heart's holy 'Waters' ! ✍️ ©Rajneesh Kumar Mishra  (Copyright Reserved )

दर्द-ए-पैग़ाम: एक ग़ज़ल

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ना वो वक्त, ना वो सौगात, ना वो सर-ए-शाम भूलेगा ना वो शूकू, ना वो जज़्बात, ना वो नज़र-ए-पैग़ाम भूलेगा मेरी आह, तेरी उफ़,आगोश, गुफ्तगू-ए-इश्क़, ना परवाज़ भूलेगा कत्थई आँखें, तेरी हया, अदा, इकरार-ए-इश्क़,ना आगाज़ भूलेगा ना वो हवा, ना वो आब, ना वो अश्क-ए-सैलाब भूलेगा ना वो बोसा, ना वो दवा, ना वो दरिया-ए-शराब भूलेगा ना वो ज़ख्म, ना वो दर्द, ना वो मरहम-ए-दवात भूलेगा ना तो हम, ना तो तुम, ना वो करिश्मा-ए-काएनात भूलेगा एक दिन संदूक-ओ-खज़ाना, अलमारी-ए-इल्म, हिसाब-ए-क़िताब खुलेगा मुहब्बत-ए-मुदई, दीवार-ए-दीदार, कियामत-ए-दिन, तेरा नक़ाब खुलेगा ।  हक़्क़-ए-नक़्ल महफ़ूज़...! ✍️© Rajneesh Kumar Mishra

मालिक-ए-मख़्लूक़ :एक ग़ज़ल

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मेरी बुत परस्ती से, हमारे रिश्ते शरेआम हो गए बगैर रूह के वो मुहतरम-ओ-ख़ास, हम आम हो गए हम अदब-ओ-आलिम वाले, खैर अब बदनाम हो गए दरिंदें-नवाज़ अब आपकी नज़रों में गुलफ़ाम हो गए इक दौर के मुरिद-ए-फ़कीर, अब परिंदे उड़नबाज हो गए संभलिए, अम्मीजान के नूर-ए-नज़र, अब आप गूले-नाज़ हो गए ख़ुदा की ख़ुदाई तो हम भी हैं पर आज क्या से क्या हो गए ! थे कभी हम भी चश्म-ए-बसर वाले , रब जाने कहां खो गए ! आख़री सांस भी रुख्सत होने को है, वो लौटे नहीं, जो गए  अब छोड़ो भी यार, हम तो ख़ुदा के ही थे, उन्हीं के हो गए ! हक़्क़-ए-नक़्ल महफ़ूज़...! ✍️© रजनीश कुमार मिश्र

A Man is Made with Love and Brain

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A man is made With love and head. Worldly men grew refined  By closing heart and opening mind. Open heart creates a mother with breast. Only mind turns into the deadliest beast. Perfect balance of both forms a god. "You are both He and She, O my Lord !" No earth, no heaven without the 'She'. Humanity, divinity both needs 'She' and 'He'. This's a way to form the society of a 'We'. You're a union, hence the brother of 'me'. Feel motherly and fatherly towards all To drag the heaven here with a soft fall. ✍️©Rajneesh Kumar Mishra

एहसास

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अनुभूति की विभूति है जीवंत व दिगंत । कोई विभूति है, बस बनने को प्रजातंत्र का महन्त, तो कोई काया विभूति लपेट बन गया सच्चा सन्त । सचमुच है न भाव का प्रवाह अनादि और अनन्त...! कोई राक्षसी रंजिशियों के खून में उबल रहा । कोई देव सा दयाभाव में हिम सा पिघल रहा । कोई ईर्ष्या की आग में तिल तिल जल रहा । कोई आत्मानुभूति के क्षीर सागर में ढल रहा । कोई आडम्बर के अम्बर में स्वयं सूरज बन दीप्त है । पर आत्माहुति करे जो नित, जीव को वहीं तो आदित्य है।  देखो ! बन बाबा एक कामातुर, वासना में नित लिप्त है। वैराग्य के सन्मार्ग पर, व्यभिचार एक हिंसा है, कुकृत्य है। सदानंद समीर ज्यों समुद्र गर्भ से तिरता है, समभाव हीय भंवर में त्यों नयन से गिरता है । तान-तरंग, तन-बदन में फिर फ़कीर सा फिरता है, तब जाके कहीं मन में मृदु-भाव, प्रेम नद को चीरता है । © रजनीश कुमार मिश्र