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ज़ख्म ए आतंक

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जब जब हमने आतंकियों पर ऐतबार किया, तब तब हमने मुंह की खाई है । हमदर्दों के सफ़ेद लिबास में वो, हराम-ए-हकीम वो ज़हर का दवाई है । जिसका जन्नते अस्ल ही कत्ल वो गारत है, वो ऐसा ही भाई है । लानत है उसकी पैदाइश पर, वो अपनी मां वो बहन का कसाई है । रगों में बारूद भरा है, जैसे मांओं ने दूध नहीं अब्बाओं ने खून पिलाई है । फटना ही इनकी नियति है, इनके आकाओं ने ऐसे ही मसनद सिलाई है । मासूमों के मांस सूंघते रहते हैं ये लोग, जैसे इंसानी गोस्त खाई है । सुपुर्द-ए-खांक भी नहीं होते इनके चीथड़े, अक्सर हवा ने उड़ाई है । मोहब्बत वो इल्म को भी बनाया गुनहगार, किस दर्स-गाह ने तुम्हें ये सिखाई है । गर तू भी है इंसान कि औलाद, निकाल फेंक वहशत, तेरे खून में किसी ने मिलाई है ।  (हक़्क़-ए-नक़्ल महफ़ूज़) ✍️ रजनीश कुमार मिश्र

रुख़्सत-ए-ज़ख्म

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एक दिन शहर से आया अपने गांव के बाज़ार तक । नज़रें समेट रहीं थी नज़ारा, छितिज से मजार तक ।। जान पहचान के ही सब थे- बुंदा, बंदा से बयार तक । धुंधला था मासूमियत, नादानी, जवानी से प्यार तक ।। गांव वो घर खींच रहा था उस तरफ़, नदी के पार तक । और नहर, बगीचा, खेत-क्रिकेट भी जीत से हार तक ।  फ़िर धक्का दिया यकायक वो पीपल, कुआं वो यार तक । मां नहीं थीं वहां और बेजां था अपना घर, आंगन से द्वार तक । हिम्मत न हुई आगे बढ़ने की सो लौट आया वापसी सवार तक । यहीं कैद था भाग्य, संगिनी, बीमार मां वो जीवन के आसार तक । दास्तां-ए-वालिद जो मुबहम है, कौन लिखेगा कयामत के प्रसार तक । वो बस जिता है पल पल मर कर, तपता है सर्द से बसंती बहार तक । कलमगारी ✍️© रजनीश कुमार मिश्र  (हक़्क़-ए-नक़्ल महफ़ूज़)

उस्तादों के उस्ताद के लिए...!

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मेरा ख्याल है कि मुझे अब तेरे ख्याल का खाल पहनना  होगा । अपने मिजाज़ का जनाजा उठा तेरे मिजाज़ में पलना होगा । तू हुज़ूर के हवा सरीख भी नहीं, पर हाय ये कैसी मज़बूरी, मुझे तेरे नक्श-ए-क़दम पे चलना होगा । मेरा सर ख़ुद झुकता है उस्तादों के आगे, ज्यों सजदे में सबका झुकता होगा । सोचो क्या है तेरी खासियत की ये मेरी नज़र तेरे दिद से छुपता वो बचता होगा । पता है सबको कि तू दलाल है, अब तु भी मान ले तुमसे उस्तादी नहीं, बस दलाली ही बेहतर होगा । तू कहां जाता होगा, कब आता होगा, शान-वो-शौकत की हवा कहां भरवाता होगा ? तू हक मारता होगा, पेट काटता होगा औरों का, तू दौलत लूटता वो लुटवाता होगा । मैंने सुना है तुम्ही से कि ज़िन्दगी है चार दिन की  मेरा दावा है कि ऐसा कह के तेरा रूह कांप जाता होगा । ✍️कलमगारी @©रजनीश कुमार मिश्र  (हक़्क़-ए-नक़्ल महफ़ूज़)

मां बाप की करो कद्र !

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मैंने उनकी मोहब्बत को सीने में जलते देखा है । वर्षों ना बरसी थी जो आँखें उन्हें बरसते देखा है । ख़ुदा गवाह हैं, मैने ख़ुद के ख़ुदा को, हरपल मरते देखा है। अंधी होजानी थीं, उन आँखों को, जिनसे हमने ऐसा होते देखा है ! दुनियावी इंसानियत, तुझे हैवानियत के हलाहल में गिरते देखा है । जो फ़ौलाद गलाने वाले को, औलाद के सामने पिघलते देखा है । डीजे की धूम पर, मैंने नई बहुरिया को नागिन नाच करते देखा है । हाय, फटी क्यूं न मेरी छाती जो बूढ़ी माँ को वहीं बिलखते देखा है ! तू नादां है जो तूने सिर्फ़ हसीं, खुशी का बहार ए गुब्बार देखा है । पूछ उससे तजुर्बा-ए-ज़िन्दगी, जिसने जलकुम्भी के जलते अम्बार देखा है । वो फरेबी है, जिसने तेरे हाथों की लकीरों में तेरी क़िस्मत रोते देखी है । उस मां की आंखों में देख जिसने तुझे अपने तन से पैदा होते देखी है । कलमगारी ✍️@©®रजनीश कुमार मिश्र (हक़्क़-ए-नक़्ल महफ़ूज़)

चांद से चंदा की नैना मिली ...!

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जो चांद से चंदा की नैना मिली तो चांदी बदन चम्पा सी खिलीss । मुझे भी कहीं, है देखी कभी ? मेरी शाम-वो-सहर, है तू आठोंपहर । तू श्याम, बस नाम, बसा ले, दिलों में अभीss...। जो चांद से चंदा की नैना मिली तो चांदी बदन चम्पा सी खिलीss । क्या चंदा तुझे, है भी ख़बर ? तू भौरा कि है, जान-ए-जिगर । है ख़ाब, कि आब, पिला दे, लबों की कभी ss...। जो चांद से चंदा की नैना मिली तो चांदी बदन चम्पा सी खिलीss । मैं तुझको जो देखूं , तो अपना लगे तू । जो ख़ुदको मैं देखूं , तो सपना लगे तू । तू आ जा, समा जा , बदन में, हवा बनादे मिट्टी मेरीss...। जो चांद से चंदा की नैना मिली तो चांदी बदन चम्पा सी खिलीss । फ़कीर-ए-इश्क , बनेगा जो बादल  आशिक आवारा , तो होगें ना पागल । रात रानी, बनेगी कहानी, देखो , ख़ुदाया, खुशबू उड़ीss...। ~मेरे गीत... ✍️© रजनीश कुमार मिश्र (हक़्क़-ए-नक़्ल महफ़ूज़)

बिहार, बिहारी और छठ : छठी मईया के श्री चरणों में सादर समर्पित एक ग़ज़ल !

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हम बिहार-ए-बाशिंदा एक ख़ास तेहवार करते हैं । जान वो जिगर से सूरज का इबादत वो प्यार करते हैं । ढलते हुए सिराज पर दिल वो जां निसार करते हैं । फर्ज़ के आबे दरिया में छठी मईया का दीदार करते हैं । मत पूछ मेरी जां, कि बिहारी कैसा व्यवहार करते हैं । पूरी कायनात के लिए, रिफ़ाह-ए-आम का एहतराम करते हैं । सारे मजहबों के मालिक, शिरकत करें हम आह्वान करते हैं । कुदरती सौग़ात हैं, हम इंसा हैं, इंसा से प्यार करते हैं। गन्ना, मौसमी फल, लज़ीज़-ए-ख़ास खस्ता चढ़ाया करते हैं । रहें देश या परदेश, अम्मा के लाल आंचल में समाया करते हैं । ।। जय छठी मईया ।। छठ महापर्व पर जगत जननी के प्रति अपार श्रद्धा व अटूट विश्वास के साथ...! आपका  ✍️©रजनीश कुमार मिश्र (हक़्क़-ए-नक़्ल महफ़ूज़)

मालिक ने ख़ुदी बसायी है बस्तियां : एक ग़ज़ल

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बहुत बातें बनाली हमने, ज़िंदगी-ए-कारोबार में । गुफ़्तुगू-ए-ख़्वाहिश है तुमसे, साईकिल की सवार में। मरहम वो ज़न्नत-ए-दीद है, तेरी सरबती आँखों की खुमार में। उफ़ ! हर चीज़ बिक रही है यहां, हाय! आग लगी है बाज़ार में । सवाद खूब है देहाती चटनी में, अम्मी-दादी वो नानी की आचार में । चलो एक झोपड़ा बनाते हैं, सब बेचकर बाग वो बहार में। पैराकी काफ़ी करली हमने अबतक, आब-ए-ठहराव में । बस चलो अब वहीं चलें-गांव, झील-ए-बहाव के नाव में । शबनम-ए-ख़ास का बुलावा है बे-जुराब, चांदनी 'अब्र की ठाँव में। शहरों में सिंगार-ए-चमक बहुत है, ख़ुदी की गर्द है गंदी बयार में । देहातों में क़रार-वो-प्यार बहुत है, रिश्ता वो रास्ती है हरेक इकरार में । मालिक ने ख़ुदी बसायी है बस्तियां, अपने पलकों की छांव में । बहुत बातें बना ली हमने, ज़िंदगी-ए-कारोबार में । गुफ़्तुगू-ए-ख़्वाहिश है तुमसे, साईकिल की सवार में। ज्यादा जी लिया जहन्नम ए जिंदगी, आओ चलें जन्नत के गांव में। हक़्क़-ए-नक़्ल महफ़ूज़... ✍️© रजनीश कुमार मिश्र