एहसास
अनुभूति की विभूति है जीवंत व दिगंत । कोई विभूति है, बस बनने को प्रजातंत्र का महन्त, तो कोई काया विभूति लपेट बन गया सच्चा सन्त । सचमुच है न भाव का प्रवाह अनादि और अनन्त...! कोई राक्षसी रंजिशियों के खून में उबल रहा । कोई देव सा दयाभाव में हिम सा पिघल रहा । कोई ईर्ष्या की आग में तिल तिल जल रहा । कोई आत्मानुभूति के क्षीर सागर में ढल रहा । कोई आडम्बर के अम्बर में स्वयं सूरज बन दीप्त है । पर आत्माहुति करे जो नित, जीव को वहीं तो आदित्य है। देखो ! बन बाबा एक कामातुर, वासना में नित लिप्त है। वैराग्य के सन्मार्ग पर, व्यभिचार एक हिंसा है, कुकृत्य है। सदानंद समीर ज्यों समुद्र गर्भ से तिरता है, समभाव हीय भंवर में त्यों नयन से गिरता है । तान-तरंग, तन-बदन में फिर फ़कीर सा फिरता है, तब जाके कहीं मन में मृदु-भाव, प्रेम नद को चीरता है । © रजनीश कुमार मिश्र