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एहसास

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अनुभूति की विभूति है जीवंत व दिगंत । कोई विभूति है, बस बनने को प्रजातंत्र का महन्त, तो कोई काया विभूति लपेट बन गया सच्चा सन्त । सचमुच है न भाव का प्रवाह अनादि और अनन्त...! कोई राक्षसी रंजिशियों के खून में उबल रहा । कोई देव सा दयाभाव में हिम सा पिघल रहा । कोई ईर्ष्या की आग में तिल तिल जल रहा । कोई आत्मानुभूति के क्षीर सागर में ढल रहा । कोई आडम्बर के अम्बर में स्वयं सूरज बन दीप्त है । पर आत्माहुति करे जो नित, जीव को वहीं तो आदित्य है।  देखो ! बन बाबा एक कामातुर, वासना में नित लिप्त है। वैराग्य के सन्मार्ग पर, व्यभिचार एक हिंसा है, कुकृत्य है। सदानंद समीर ज्यों समुद्र गर्भ से तिरता है, समभाव हीय भंवर में त्यों नयन से गिरता है । तान-तरंग, तन-बदन में फिर फ़कीर सा फिरता है, तब जाके कहीं मन में मृदु-भाव, प्रेम नद को चीरता है । © रजनीश कुमार मिश्र

काल चक्र-सर्व शक्तिमान !!!

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अनजान प्रिये ! तु जान प्रिये, मैं ही सबका हूँ प्राण-प्रिये । नादान प्रिये ! तुम्हरे किरिये, सच बात कहुँ यह मान प्रिये । ना रूठ प्रिये ! मैं ना झुठ प्रिये, मैं मृत्यु सा हूँ साँच प्रिये । स्व मगन प्रिये ! मैं अगन प्रिये, मैं हिम सा शीतल काँच प्रिये ! मेरी शान प्रिये ! कुछ तो कहिये, मैं मूक नहीं वाचाल प्रिये । चंचल प्रिये ! मैं ही चल-अचल प्रिये , मैं जीवन का प्रवाह प्रिये ! कोमल प्रिये ! मैं ही काया कंचन प्रिये, मैं ही भूत विकराल प्रिये । मेरी चाँद प्रिये ! मैं धरती व आसमान प्रिये, इनमें छिपि मेरी भान प्रिये । ऊर्वशी प्रिये ! मैं ही अवतरण प्रिये, मैं करता हूँ भवपार प्रिये । मैं जनम प्रिये, मैं मरण प्रिये । मैं सुख प्रिये, मैं दुःख प्रिये । मैं जगत पिता, मैं जगत माता । मैं चर-अचर, मैं ही हूं ब्रह्माण्ड प्रिये । मैं मधुर-मिलन, मैं विष-विरह प्रिये । मैं ही मैं बस जान प्रिये .... I मेरी मोह प्रिये, मेरी काम प्रिये ।  मैं मौत प्रिये, मैं ही हूँ गर्भधान प्रिये । मैं बाल काण्ड, मैं उत्तर काण्ड । मैं स्वयं ब्रह्मा, मैं ही हूँ महाकाल प्रिये । मैं सीता स्वयंवर, मैं हवन कुण्ड । मैं ...