जंगली होली
ढिंढोरे पर बैठ, धूर्त ने ढोल बजाया ढब ढब ढब भोज-भात हड्डी के साथ, उबल रहा था डब डब डब आडम्बर-अबीर लगाकर, कूद रहा था धम धम धम बाराह-गर्जन सा गीत गाकर, नाच रहा था छम छम छम मिथक- माथे लटका पूंछ, हिल रहा था हल हल हल खून सना खूंखार आंखें, खौल रही थी खल खल खल लालच लिप्त कुछ जिह्वाएं, लार टपकाएं तर तर तर साधू सरीख कुछ संत वहां से, सरक रहे थे सर सर सर आगे- पीछे, ऊपर- नीचे, उलट रहा था धड़ धड़ धड़ हिंसक वह, होली की हुड़दंग हाक रहा था हड़ हड़ हड़ कोई कसर ना छोड़ सके सो रंग उड़ाता भक भक भक कवि हृदय वह कहलाने को, बात बनाता बक बक बक ईर्ष्या, द्वेष, घृणा से घृणित तू क्या होली मनाएगा? जब तक कुटिल हृदय ना धोया, कवि कैसे हो जायेगा? तू हिंसक है, हृदय की हत्या करता है। भला के नाम पर भोलेपन का शिकार करता है। @ रजनीश कुमार मिश्र